विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य हैं
हिन्दू धर्म के
आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों
में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया
है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ
विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक
माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः
स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव
(मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों
में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं।पुराणानुसार विष्णु की
पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है।
उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी
स्थित हैं।वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल) , अपने
नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ
में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते
हैं।
ऋग्वेद
में विष्णु
वैदिक
देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिक दृष्टि से विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि
उनका स्तवन मात्र 5 सूक्तों में किया गया है; लेकिन यदि
सांख्यिक दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाय तो उनका महत्त्व
बहुत बढ़कर सामने आता है।ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर'
(विशाल शरीर वाला), युवाकुमार आदि विशेषणों से
ख्यापित किया गया है ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु के स्वरूप एवं वैशिष्ट्यों का अवलोकन
निम्नांकि बिन्दुओं में किया जा सकता है
लोकत्रय
के शास्ता : तीन पाद-प्रक्षेप
विष्णु
की अनुपम विशेषता उनके तीन पाद-प्रक्षेप हैं, जिनका ऋग्वेद
में बारह बार उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके तीन
पद-क्रम मधु से परिपूर्ण कहे गये हैं, जो कभी भी क्षीण नहीं
होते। उनके तीन पद-क्रम इतने विस्तृत हैं कि उनमें सम्पूर्ण लोक विद्यमान रहते हैं
(अथवा तदाश्रित रहते हैं)। ‘त्रेधा विचक्रमाणः’ भी प्रकारान्तर से उनके तीन
पाद-प्रक्षेपों को ध्वनित करता है। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद भी उक्त तथ्य के
परिचायक हैं। मधु से आपूरित उनके तीन पद-क्रम में से दो दृष्टिगोचर हैं, तीसरा सर्वथा अगोचर। इस तीसरे सर्वोच्च पद को पक्षियों की उड़ान और मर्त्य
चक्षु के उस पार कहा गया है] यास्क के पूर्ववर्ती शाकपूणि इन
तीन पाद-प्रक्षेपों को ब्रह्माण्ड के तीन भागों-- पृथ्वी, अन्तरिक्ष
और द्युलोक में सूर्य की संचार गति के प्रतीक मानते हैं।[13] यास्क के ही पूर्ववर्ती और्णवाभ उन्हें सूर्य के उदय, मध्याकाश में स्थिति तथा अस्त का वाची मानते हैं।[14] तिलक महोदय इनसे वर्ष के त्रिधाविभाजन (प्रत्येक भाग में 4 महीने) का
संकेत मानते हैं।[15] यदि देखा जाय तो अधिकांश विद्वान्
विष्णु को सूर्य-वाची मान कर उदयकाल से मध्याह्न पर्यन्त उसका एक पादप्रक्षेप,
मध्याह्न से अस्तकाल पर्यन्त द्वितीय पादप्रक्षेप और अस्तकाल से
पुनः अग्रिम उदयकाल तक तृतीय पाद-प्रक्षेप स्वीकारते हैं। इन्हीं पूर्वोक्त दो
पाद-प्रक्षेपों को दृष्टिगोचर और तीसरे को अगोचर कहा गया है। लेकिन मैकडाॅनल सहित
अन्य अनेक विद्वानों का भी कहना है कि इस अर्थ में तीसरे चरण को 'सर्वोच्च' कैसे माना जा सकता है? इसलिए वे लोग पूर्वोक्त शाकपूणि की तरह तीन चरणों को सौर देवता के तीनों
लोकों में से होकर जाने के मार्ग को मानते हैं।[16] सूर्य की
कल्पना का ही समर्थन करते हुए मैकडानल ने विष्णु द्वारा अपने 90 अश्वों के संचालित
किये जाने का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्ये के चार-चार
नाम हैं। इस प्रकार 4 की संख्या से गुणीकृत 90 अर्थात् 360 अश्वों को वे एक सौर
वर्ष के दिनों से अभिन्न मानते हैं। वस्तुतः विष्णु के दो पदों से सम्पूर्ण विश्व
की नियन्त्रणात्मकता तथा तीसरे पद से उनका परम धाम अर्थात् उनकी प्राप्ति संकेतित
है। स्वयं ऋग्वेद में ही इन तीन पदों की रहस्यात्मक व्याख्या की गयी है।[17]
इसलिए इस पद को ज्ञानात्मक मानकर ऋग्वेद में ही स्पष्ट कहा गया है
कि विष्णु का परम पद ज्ञानियों द्वारा ही ज्ञातव्य है।
विष्णु-धाम
अर्थात् विष्णु का प्रिय आवास (वैकुण्ठ)
वैसे
तो विष्णु को वाणी में निवास करने वाला भी माना जाता है, किन्तु
उनका परम प्रिय आवास स्थल 'पाथः' ऋग्वेद
में बहुचर्चित है। आचार्य सायण ने ‘गिरि’ पद को श्लिष्ट मानकर उसका अर्थ 'वाणी' के साथ-साथ लाक्षणिक रूप में ‘पर्वत के समान
उन्नत लोक’ भी किया है।[19] 'गिरि' को
यदि इन दोनों अर्थों में स्वीकृत कर लिया जाय तो समस्या का समाधान हो जाता है।
विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है वही उनका आवास स्थान है। विष्णु का लोक ‘परम
पद’ है अर्थात् गन्तव्य रूपेण वह सर्वोत्कृष्ट लोक है। उस ‘परम पद’ की विशेषता यह
है कि वह अत्यधिक प्रकाश से युक्त है।[20] वहाँ अनेक शृंगों
वाली गायें (अथवा किरणें) संचरण किया करती हैं। ‘गावः’ यहाँ श्लिष्ट पद की तरह है।
श्लेष से उसका अर्थ ‘गायें’ करने पर वहाँ दुग्ध आदि भौतिक पुष्टि का प्राचुर्य एवं
‘किरणें’ करने पर वहाँ प्रकाश अर्थात् आत्मिक उन्नति का बाहुल्य सहज ही अनुमेय है।
विष्णु के ‘परम पद’ में मधु का स्थायी उत्स (= स्रोत) है। यह ‘मधु’ देवताओं को भी
आनन्दित करनेवाला है। इस श्लिष्ट पद का जो भी अर्थ किया जाय पर वह हर स्थिति में
परमानन्द का वाचक है, जिसके लिए देवता सहित समस्त प्राणी
अभिलाषी भी रहते हैं और प्रयत्नशील भी। इसलिए उक्त लोक की प्राप्ति की कामना सभी
करते हैं। उसी मंत्र में वहाँ पुण्यशाली लोगों का, तृप्ति
(आनन्द, प्रसन्नता) का अनुभव करते हुए उल्लेख भी हुआ है।
विष्णु-इन्द्र
युग्म अर्थात् इन्द्र-सखा
विष्णु
की एक प्रमुख विशेषता उनका इन्द्र से मैत्रीभाव है। इन्द्र के साहचर्य में ही उनके
तीन पाद-प्रक्षेपों का प्रवर्तन होता है। इन्द्र के साथ मिलकर वह शम्बर दैत्य के
99 किलों का विनाश करते हैं।[23] इसी प्रकार वह वृत्र के साथ
संग्राम में भी इन्द्र की सहायता करते हैं। दोनों को कहीं-कहीं एक दूसरे की
शक्तियों से युक्त भी बतलाया गया है। इस प्रकार विष्णु द्वारा सोमपान किया जाना और
इन्द्र द्वारा तीन पाद-प्रक्षेप किया जाना भी वर्णित है। ऋग्वेद, मण्डल 6, सूक्त 69 में दोनों देवों का युग्मरूपेण
स्तवन हुआ है। इसी प्रकार ऋग्वेद के मण्डल 5, सूक्त 87 में
इन्द्र के सहचर मरुद्गणों के साथ उनकी सहस्तुति प्राप्त होती है।
परम
वीर्यशाली
विष् धातु से
व्युत्पन्न विष्णु पद का शाब्दिक अर्थ ‘व्यापक, गतिशील,
क्रियाशील अथवा उद्यम-शील’ होता है। अपने बल-विक्रम के ही कारण वे
लोगों द्वारा स्तुत होते हैं। वे अनन्त वीर्यवाले हैं। इस गुण के कारण ही उन्हें
प्रतीक रूप से ‘वृष्ण’ भी माना गया है।[
कुत्सितों
के लिए भयकारक
अपने वीर्य (बल) अथवा वीर कर्मों के कारण वे
शत्रुओं के भय का कारण हैं। उनसे लोग उसी प्रकार भयभीत रहते हैं, जिस प्रकार किसी पर्वतचारी सिंह से। ‘परमेश्वराद्भीतिः’ आदि श्रुति-वचनों
से सामान्य जनों का भी उनसे भय करना सिद्ध हो जाता है। उनसे भयभीत होना अकारण नहीं
है। वे कुत्सितों (शत्रुओं) का वध आदि हिंसाकर्म करने वाले हैं। यहाँ यह ध्यातव्य
है कि वे कुत्सित हिंसादिकर्ता (कुचरः) का ही वध करते है।[25] इसलिए उनके लिए कहा गया है कि वे हत्यारे नहीं हैं
व्यापक
तथा अप्रतिहत गति वाले
विष्णु विस्तीर्ण,
व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद इस
तथ्य के पोषक हैं। ‘उरुगाय’ का अर्थ आचार्य सायण द्वारा ‘महज्जनों द्वारा
स्तूयमान’ अथवा ‘प्रभूततया स्तूयमान’[27] करने से भी विष्णु
की महिमा विखण्डित नहीं होती। डाॅ.यदुनन्दन मिश्र का कहना है कि इस पद का अर्थ
‘विस्तीर्ण गति वाला’ करने के लिए हम इस लिए आग्रहवान् हैं, क्योंकि
उसे ‘सभी लोकों में संचरण करने वाला’ कहा गया है।[28] उनके
पद-क्रम इतने सुदीर्घ होते हैं कि वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से ही तीनों लोकों
को नाप लेते हैं।
लोकोपकारक
विष्णु
के तीन पद यदि सृष्टि करते हैं, स्थापन करते हैं, धारण करते हैं[29] तो वहीं पर आश्रित जनों का
पालन-पोषण भी किया करते हैं। लोगों को अपना भोग्य अन्नादि उन्हीं तीन पद-क्रमों के
प्रसादस्वरूप प्राप्त होता है, जिससे कि वे परम तृप्ति का
अनुभव किया करते हैं। जो लोग विष्णु की स्तुति करते हैं, उनका
वे सर्वविध कल्याण करते हैं, क्योंकि उनके स्तवनादि कर्म से
उसे परम स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार स्फूर्ति-प्रदायिनी स्तुति विष्णु तक पहुँचा
पाने के लिये सभी लालायित रहते हैं।[24] वे वरिष्ठ दाता हैं।[26]
सर्वोच्चता
सर्वाधिक
मन्त्रों में वर्णित होने के बावजूद इन्द्र को 'सुकृत'
और विष्णु को 'सुकृत्तरः' कहा गया है।[32] 'सुकृत्तरः' का
आचार्य सायण ने 'उत्तम फल प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ'
अर्थ किया है; श्रीपाद सातवलेकर जी ने
'उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ' अर्थ
किया है और महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी 'अतीव उत्तम
कर्म वाला' अर्थ किया है।[33] इन्द्र
'सुकृत' (उत्तम कर्म करने वाला) है तो विष्णु
'सुकृत्तरः' (उत्तम कर्म करने वालों में
सर्वश्रेष्ठ) हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि ऋग्वेद में ही यह मान लिया गया है कि
विष्णु सर्वोच्च हैं। इसी प्रकार इन्द्र के राजा होने के बावजूद विष्णु की
सर्वोच्चता ऋग्वेद में ही इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि उसमें विष्णु के लिए
कहा गया है कि "वे सम्पूर्ण विश्व को अकेले धारण करते हैं"[30] तथा इन्द्र के लिए कहा गया है कि वे राज्य (संचालन) करते हैं[34]। तात्पर्य स्पष्ट है कि सृष्टि के सर्जक एवं पालक विष्णु ने संचालन हेतु
इन्द्र को राजा बनाया है। इस सुसन्दर्भित परिप्रेक्ष्य में विष्णु की सर्वोच्चता
से सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रन्थों एवं बाद की पौराणिक मान्यताएँ भी स्वतः उद्भासित हो
उठती हैं।
ब्राह्मणों
में विष्णु
ब्राह्मण-युग
में यज्ञ-संस्था का विपुल विकास हुआ और इसके साथ ही देवमंडली में विष्णु का
महत्त्व भी पहले की अपेक्षा अधिकतर हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के आरम्भ में ही यज्ञ
में स्थान देने के क्रम में अग्नि से आरम्भ कर विष्णु के स्थान को 'परम' कहा गया है। इनके मध्य अन्य देवताओं का स्थान
हइस तरह स्पष्ट रूप से वैदिक संहिता ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान प्राप्त अग्नि
की अपेक्षा विष्णु को अत्युच्च स्थान दिया गया है। वस्तुतः विष्णु को महत्तम तो
ऋग्वेद में भी माना ही गया है, पर वर्णन की अल्पता के कारण
वहाँ उनका स्थान गौण लगता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट कथन के द्वारा उन्हें
सर्वोच्च पद दिया गया है। यह श्रेष्ठता इस कथा से भी स्पष्ट होती है कि विष्णु ने
अपने तीन पगों द्वारा असुरों से पृथ्वी, वेद तथा वाणी सब
छीनकर इन्द्र को दे दी।[36] वैदिक विष्णु के तीन पगों का यह
ब्राह्मणों में कथात्मक रूपान्तरण है; और इसी के साथ विष्णु
की सर्वश्रेष्ठता भी ब्राह्मण युग में ही स्पष्ट हो गयी। ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्ट
रूप से विष्णु को द्वारपाल की तरह देवताओं का सर्वथा संरक्षक मानता है।[37]
पौराणिक
मान्यताएँ
ऋग्वेद तथा
ब्राह्मणों में उपलब्ध संकेतों का पुराणों में पर्याप्त परिवर्धन हुआ-- कथात्मक भी,
विवरणात्मक भी और व्याख्यात्मक भी। पुराणों ने इस जगत के मूल में
वर्तमान, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस तथा हेय के
अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा
रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण से रहित (परे) हैं। वे
जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश -- इन छह विकारों से रहित हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं और
समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान् उन्हें
'वासुदेव' कहते हैं।[39] जिस समय दिन, रात, आकाश,
पृथ्वी, अन्धकार, प्रकाश
तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ नहीं था, उस समय एकमात्र वही
प्रधान पुरुष परम ब्रह्म विद्यमान थे, जो कि इन्द्रियों और
बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य) नहीं हैं।[40] सृष्टि के आरम्भ
में ब्रह्मा जी को विष्णु जी ने जो मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था,
उसमें भी यही भाव व्यक्त हुआ है -- सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं
था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह
सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप
में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच
रहेगा, वह भी मैं ही हूँ। इन सन्दर्भों से विष्णु की
सर्वोच्चता तथा सर्वनियन्ता होने की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है।माना गया है
कि विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप-- प्रधान पुरुष और दूसरा रूप 'काल' है। ये ही दोनों सृष्टि और प्रलय को अथवा
प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल रूप भगवान् अनादि तथा
अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति, स्थिति
और प्रलय भी कभी नहीं रुकते। ]वैष्णवों के सिरमौर तथा 'पुराणों का तिलक'[43]
के रूप में मान्य भागवत महापुराण में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रसंग
में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एकमात्र)
विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने
वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा
का प्रादुर्भाव हु
इसी
प्रकार अधिकांश पुराणों में विष्णु को परम ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है।
उनसे सम्बद्ध कथाओं से पुराण भरे पड़े हैं। पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक
दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा
राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का
परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना;[45]
तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को
अमृत पिलाना;[46] शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा)
का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत[47] तथा शिवपुराण[48]
जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य
है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे
परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों/अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के
कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल
करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में
महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है।
छिद्रान्वेषी लोग इन्हीं कथाओं का उपयोग मनमानी व्याख्या करके ईश्वर-विरोध के रूप
में करते हैं। परन्तु इन्हें सान्दर्भिक ज्ञान की दृष्टि से देखना इसलिए आवश्यक है
क्योंकि पुराणों या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में ये प्रसंग विपरीत स्थितियों में
सामान्य से इतर विशिष्ट कर्तव्य के ज्ञान हेतु ही उपस्थापित किये गये हैं।
ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा
और भगवान कहा गया है।[49]
विष्णु
का स्वरूप
विष्णु
का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले
आभूषणों तथा आयुधों को भी प्रतीकात्मक माना गया है :-कौस्तुभ मणि = जगत् के
निर्लेप, निर्गुण तथा निर्मल क्षेत्रज्ञ स्वरूप का
प्रतीकश्रीवत्स = प्रधान या मूल प्रकृतिगदा = बुद्धिशंख = पंचमहाभूतों के उदय का
कारण तामस अहंकारशार्ंग (धनुष) = इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला राजस
अहंकारसुदर्शन चक्र = सात्विक अहंकारवैजयन्ती माला = पंचतन्मात्रा तथा पंचमहाभूतों
का संघात [वैजयन्ती माला मुक्ता, माणिक्य,
मरकत, इन्द्रनील तथा हीरा -- इन पाँच रत्नों
से बनी होने से पंच प्रतीकात्मक]बाण = ज्ञानेन्द्रिय तथा
कर्मेन्द्रिय।खड्ग = विद्यामय ज्ञान {जो अज्ञानमय कोश
(म्यान) से आच्छादित रहता है।}इस प्रकार समस्त सृजनात्मक
उपादान तत्त्वों को विष्णु अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं।[50]श्रीविष्णु की आकृति से सम्बन्धित स्तुतिपरक एक श्लोक अतिप्रसिद्ध है
:-शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभांगम्।।लक्ष्मीकान्तं
कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ - जिनकी
आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं,
जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी
ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र
व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों
द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों
के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं,
ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को
मैं प्रणाम करता हूँ।
विष्णु-शिव
एकता
विष्णु
की सर्वश्रेष्ठता का यह तात्पर्य नहीं है कि शिव या ब्रह्मा आदि उनसे न्यून हैं।
ऊँच-नीच का भाव ईश्वर के पास नहीं होता। वह तो लीला में सृष्टि-संचालन हेतु सगुण
(सरूप) होने की प्राथमिकता मात्र है। इसलिए वैष्णव हो या शैव -- सभी पुराण तथा
महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ एक स्वर से घोषित करते हैं कि ईश्वर एक ही हैं। कहा
गया है कि एक ही भगवान् जनार्दन जगत् की सृष्टि, स्थिति
(पालन) और संहार के लिए 'ब्रह्मा', 'विष्णु'
और 'शिव' -- इन तीन
संज्ञाओं को धारण करते हैं।[51] अनेकत्र विष्णु तथा शिव के
एक ही होने के स्पष्ट कथन उपलब्ध होते हैं।[52]
विष्णु
के अवतार
'अवतार' का शाब्दिक अर्थ है भगवान् का अपनी स्वातंत्र्य-शक्ति के द्वारा भौतिक
जगत् में मूर्त रूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना अवतार की
सिद्धि दो दशाओं में मानी जाती है -- एक तो अपने रूप का परित्याग कर कार्यवश नवीन
रूप का ग्रहण; तथा दूसरा नवीन जन्म ग्रहण कर सम्बद्ध रूप में
आना, जिसमें माता के गर्भ में उचित काल तक एक स्थिति की बात
भी सन्निविष्ट है।[54] इसमें अत्यल्प समय के लिए रूप बदलकर
या किसी दूसरे का रूप धारणकर पुनः अपने रूप में आ जाना शामिल नहीं होता।
अवतार
का प्रयोजन
श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के सुप्रसिद्ध सातवें एवं आठवें श्लोक
में भगवान् ने स्वयं अवतार का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि -- जब-जब धर्म की हानि
और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण
और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न
होता हूँ।[55] इसके अतिरिक्त भागवत महापुराण में एक विशिष्ट
और अधिक उदात्त प्रयोजन की बात कही गयी है कि भगवान् तो प्रकृति सम्बन्धी
वृद्धि-विनाश आदि से परे अचिन्त्य, अनन्त, निर्गुण हैं। तो यदि वे अवतार रूप में अपनी लीला को प्रकट नहीं करते तो
जीव उनके अशेष गुणों को कैसे समझते? अतः जीवों के प्रेरणारूप
कल्याण के लिए उन्होंने अपने को (अवतार रूप में) तथा अपनी लीला को प्रकट किया।[56]
इसलिए विभिन्न अवतार-कथाओं में कई विषम स्थितियाँ हैं जिससे जीव यह
समझ सके कि परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग कैसा होता है!
अवतारों
की संख्या
विष्णु के अवतारों की पहली व्यवस्थित सूची महाभारत में उपलब्ध होती है।
महाभारत के शान्तिपर्व में अवतारों की कुल संख्या 10 बतायी गयी है (मूलपाठ) :-हंस:
कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम ॥वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च।रामो
दाशरथिश्चैव सात्वत: कल्किरेव च अर्थात् (श्रीभगवान् स्वयं नारद से कहते हैं) हंस
कूर्म मत्स्य वराह नरसिंह वामन परशुराम दशरथनन्दन राम यदुवंशी श्रीकृष्ण तथा कल्कि
-- ये सब मेरे अवतार हैं। आगे यह भी कहा गया है कि ये भूत और भविष्य के सभी अवतार
हैं।[58] मूलपाठ में वर्णन छह अवतारों का है :- 1.वराह
2.नरसिंह 3.वामन 4.परशुराम 5.राम 6.कृष्णचूँकि महाभारत बुद्ध के जन्म से पूर्व की
अथवा बुद्ध के अवतारी होने की कल्पना से पहले की रचना है; अतः
स्वाभाविक रूप से उसमें कहीं बुद्ध का नामोनिशान नहीं है। उसके बदले हंस को अवतार
रूप में गिनने से दश की संख्या पूरी हो गयी है महाभारत के दाक्षिणात्य पाठ में
अवतार का वर्णन इस प्रकार है :-मत्स्य कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः। रामो
रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दशा:यहाँ पूर्वोक्त अवतारों में से हंस को
छोड़कर तीसरे राम अर्थात् बलराम को जोड़ देने से दश की संख्या पूरी हो गयी है। इस
विवरण से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि महाभारत-काल तक दश से अधिक अवतारों की
कल्पना भी नहीं की गयी थी; अन्यथा उन दश अवतारों को 'भूत और भविष्य के भी सभी अवतार' नहीं कहा गया
रहता।बाद में अन्य अवतारों की भी कल्पना प्रचलित हुई और कुल अवतारों की गणना चौबीस
तक पहुँच गयीं
दशावतार
भागवत महापुराण में
22 तथा 24 अवतारों की गणना के बावजूद अवतारों की बहुमान्य संख्या महाभारत वाली दश
ही रही है। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड-257.40,41), लिंगपुराण (2.48.31,32), वराहपुराण
(4.2), मत्स्यपुराण (2.85.6,7) आदि
अनेक पुराणों में समान रूप से दश अवतारों की बात ही बतायी गयी है। अग्निपुराण के
वर्णन (अध्याय-2से16)[62] में भी बिल्कुल वही क्रम है। इस
सन्दर्भ का निम्नांकित श्लोक (नाममात्र के पाठ भेदों के साथ) प्रायः सर्वनिष्ठ है
:-मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो
रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश॥
इस
प्रकार विष्णु के दश अवतार ही बहुमान्यता प्राप्त हैं। इनके संक्षिप्त विवरण इस
प्रकार हैं :-
मत्स्यावतार
: पूर्व कल्प के अन्त में ब्रह्मा जी की तन्द्रावस्था में उनके मुख से निःसृत वेद
को हयग्रीव दैत्य के द्वारा चुरा लेने पर भगवान् ने मत्स्यावतार लिया तथा सत्यव्रत
नामक राजा से कहा कि सातवें दिन प्रलयकाल आने पर समस्त बीजों तथा वेदों के साथ
नौका पर बैठ जाएँ। उस समय सप्तर्षि के भी आ जाने पर भगवान् ने महामत्स्य के रूप
में उस नौका को उन सबके साथ अनन्त जलराशि पर तैराते हुए उन सबको बचा लिया। पश्चात्
हयग्रीव को मारकर वेद वापस ब्रह्मा जी को दे दिया।[64]
कूर्मावतार
: असुरराज बलि के नेतृत्व में दानवों द्वारा देवताओं को परास्त कर शासन-च्युत कर
देने पर भगवान् ने देवताओं को दानवों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा और जब
मन्थन के समय मथानी (मन्दराचल) डूबने लगा तो कूर्म (कच्छप) रूप धारणकर उसे अपनी
पीठ पर स्थित कर लिया। इसी मन्थन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई।[65]
वराहावतार
: वराहावतार में भगवान् विष्णु ने महासागर (रसातल) में डुबायी गयी पृथ्वी का
उद्धार किया।[66] वहीं भगवान ने हिरण्याक्ष
नामक राक्षस का वध भी किया था।[67]
नरसिंहावतार
: हिरण्याक्ष के वध के बाद विष्णुविरोधी हिरण्यकशिपु ने तपस्या के द्वारा अद्भुत
वर पाया और देवताओं को परास्त कर अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित कर भगवद्भक्तों पर
भीषण अत्याचार करने लगा। अपने पुत्र प्रह्लाद को विष्णु-भक्त जानकर उसने उसका
विचार बदलने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन असफल होकर उसे मार डालना चाहा। तब अपने
भक्त प्रहलाद को अनेक तरह से भगवान् विष्णु ने बचाया तथा वरदान की शर्त निभाते हुए
नरसिंह रूप में आकर हिरण्यकशिपु का वध कर डाला।[68]
वामनावतार
: प्रह्लाद के पौत्र, विरोचन के पुत्र
दानवराज बलि द्वारा स्वर्गाधिपत्य प्राप्त कर लेने पर कश्यप जी के परामर्श से माता
अदिति के पयोव्रत से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनके घर जन्म लेकर वामन रूप में बलि
की यज्ञशाला में पधारकर तीन पग भूमि माँगी और फिर विराट रूप धारण कर दो पगों में
पृथ्वी-स्वर्ग सब नापकर तीसरा पद रखने के लिए बलि द्वारा अपना सिर दिये जाने पर
उसे सुतल लोक भेज दिया।
परशुरामावतार:
अन्यायी क्षत्रियों और विशेषतः हैहयवंश का नाश करने के लिए भगवान् ने परशुराम के
रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर
दिया।[70] ये महान् पितृभक्त थे। पिता की
आज्ञा से इन्होंने अपनी माता का भी वध कर दिया था और पिता के प्रसन्न होकर वर
माँगने के लिए कहने पर पुनः माता को जीवित करवा लिया था। अत्याचारी कार्तवीर्य
अर्जुन (सहस्रार्जुन) के हजार हाथों को इन्होंने युद्ध में काट डाला था; और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि ऋषि (परशुराम जी के पिता) को बुरी तरह
घायल कर हत्या कर देने पर इन्होंने अत्यन्त क्रोधित होकर उन सबका वध करके इक्कीस
बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच कुण्ड भर
दिये थे। फिर यज्ञ करके सारी पृथ्वी कश्यप जी को देकर महेन्द्र पर्वत पर चले गये
रामावतार:
इस विश्व-विश्रुत अवतार में भगवान् ने महर्षि पुलस्त्य जी के पौत्र एवं मुनिवर
विश्रवा के पुत्र रावण—जो कुयोगवश राक्षस हुआ—के द्वारा सीता का हरण कर लेने से वानर जातियों की सहायता से अनुचरों सहित
रावण का वध करके आर्यावर्त को अन्यायी राक्षसों से मुक्त किया तथा आदर्श राज्य की
स्थापना की। यह विशेष ध्यातव्य है कि मानवमात्र की प्रेरणा के लिए उच्चतम
आदर्श-स्थापना का यह कार्य उन्होंने पूरी तरह मनुष्य-भाव से किया। रामकथा के लिए
सर्वाधिक प्रमाणभूत एवं आधार ग्रन्थ वाल्मीकीय रामायण में राम का चरित्र समर्थ
मानव-रूप में ही चित्रित है। युद्धादि के समापन के बाद जब सभी देवता उन्हें ब्रह्म
मानकर उनकी स्तुति करते हैं, तब भी वे कहते हैं कि --
आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्। सोऽहं यश्च यतश्चाहं भगवांस्तद् ब्रवीतु
मे॥[73] अर्थात् मैं तो अपने को दशरथपुत्र मनुष्य राम ही
मानता हूँ। मैं जो हूँ और जहाँ से आया हूँ, हे भगवन्
(ब्रह्मा)! वह सब आप ही मुझे बताइए। तब ब्रह्मा जी उन्हें सब बताते हैं। लीला के
लिए ही सही, पर पूरी तरह मनुष्यता का यह आदर्श अनुपम है;
और जो प्रेरणा इससे मिलती है वह स्वयं को हर समय सर्वशक्तिमान्
परात्पर ब्रह्म मानते हुए लीला करने से (जैसा कि बाद की रामायणों में वर्णित है)
कभी नहीं मिल सकती है।
कृष्णावतार: इस अवतार में भगवान् ने देवकी और वसुदेव के घर जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। इस अवतार में भगवान् ने विशिष्ट लीलाओं द्वारा सबको चकित करते हुए दुराचारी कंस का वध किया; और विख्यात महाभारत-युद्ध में गीता-उपदेश द्वारा अर्जुन को युद्ध हेतु तत
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