दिव्य-दूत

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आदिशक्ति दुर्गा पूजा- अनुष्ठान- कल्याण - दुष्टों का नाश और सर्व मंगल की कामना के साथ नवरात्रि पर्व शुरू

AVINASH CHOUBEY 03-10-2024 10:10:44


 अविनाश कुमार 

स्थानिय संपादक 

नवरात्रि पर विशेष

दिव्य दूत परिवार की ओर से शरद नवरात्रि की गड़ा गड़ा बधाई ,शुभकामनाएं मां का आशीर्वाद छत्तीसगढ़ पर बना रहे यही हमारी कामना

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके, शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते 

ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते 

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः 

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि, गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोस्तु ते

 छत्तीसगढ़ की तीन देवियां दंतेश्वरी, बमलेश्वरी, महामाया और मध्य प्रदेश की शारदा माई

मां बम्लेश्वरी

मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर  भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगाँव ज़िले के डोंगरगढ़ नगर में 490 मीटर (1,610 फीट) मां बम्लेश्वरी देवी का विश्व प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर स्थित है। यहां प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में हिन्दू धर्मावलंबी मां बम्लेश्वरी देवी का दर्शन करने पंहुचते है। लोकमतानुसार अब 2200 वर्ष पूर्व डोंगरगढ प्राचीन नाम कामाख्या नगरी में राजा वीरसेन का शासन था जो कि निःसंतान थे। पुत्र रत्न की कामना हेतु उसने महिषामती पुरी मे स्थित शिवजी और भगवती दुर्गा की उपासना की। जिसके फलस्वरूप रानी एक वर्ष पश्चात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योतिषियों ने नामकरण मे पुत्र का नाम मदनसेन रखा। भगवान शिव एवं माँ दुर्गा की कृपा से राजा वीरसेन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसी भक्ति भाव से प्रेरित होकर कामाख्या नगरी मे माँ बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया गया। माँ बम्लेश्वरी को जगदम्बा जिसमें भगवान शिव अर्थात महेश्वर की शक्ति विद्यमान है, के रूप मे जाना जाने लगा। राजा मदनसेन एक प्रजा सेवक शासक थे। उनके पुत्र हुए राजा कामसेन जिनके नाम पर कामाख्या नगरी का नाम कामावती पुरी रखा गया। कामकन्दला और माधवनल की प्रेमकथा भी डोंगरगढ की प्रसिध्दी का महत्वपूर्ण अंग है। कामकन्दला, राजा कामसेन के राज दरबार मे नर्तकी थी। वही माधवनल निपुण संगीतग्य हुआ करता था।कामकन्दला और माधवनल माधवी के माध्यम से पत्र व्यवहार करने लगे किन्तु मदनादित्य ने माधवी को एक रोज पत्र ले जाते पकड़ लिया। डर व धन के प्रलोभन से माधवी ने सारा सच उगल दिया। मदनादित्य ने कामकन्दला को राजद्रोह के आरोप मे बंदी बनाया और माधवनल को पकड़ने सिपाहियों को भेजा।

 सिपाहियों को आते देख माधवनल पहाड़ी से निकल भागा और उज्जैन जा पहुँचा। उस समय उज्जैन मे राजा विक्रमादित्य का शासन था जो बहुत ही प्रतापी और दयावान राजा थे। माधवनल की करूण कथा सुन उन्होने माधवनल की सहायता करने की सोच अपनी सेना कामाख्या नगरी पर आक्रमण कर दिया। कई दिनो के घनघोर युध्द के बाद विक्रमादित्य विजयी हुए एवं मदनादित्य, माधवनल के हाथो मारा गया। घनघोर युध्द से वैभवशाली कामाख्या नगरी पूर्णतः ध्वस्त हो गई। चारो ओर शेष डोंगर ही बचे रहे तथा इस प्रकार डुंगराज्य नगर पृष्टभुमि तैयार हुई। युध्द के पश्चात विक्रमादित्य द्वारा कामकन्दला एवं माधवनल की प्रेम परीक्षा लेने हेतु जब यह मिथ्या सूचना फैलाई गई कि युध्द मे माधवनल वीरगति को प्राप्त हुआ तो कामकन्दला ने ताल मे कूदकर प्राणोत्सर्ग कर दिया। वह तालाब आज भी कामकन्दला के नाम से विख्यात है। उधर कामकन्दला के आत्मोत्सर्ग से माधवनल ने भी अपने प्राण त्याग दिये। अपना प्रयोजन सिध्द होते ना देख राजा विक्रमादित्य ने माँ बम्लेश्वरी देवी (बगुलामुखी) की आराधना की और अतंतः प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो गये। तब देवी ने प्रकट होकर अपने भक्त को आत्मघात से रोका। तत्पश्चात विक्रमादित्य ने माधवनल कामकन्दला के जीवन के साथ यह वरदान भी मांगा कि माँ बगुलामुखी अपने जागृत रूप मे पहाडी मे प्रतिष्टित हो। तबसे माँ बगुलामुखी अपभ्रंश बमलाई देवी साक्षात महाकाली रूप मे डोंगरगढ मे प्रतिष्ठित है। सन 1964 मे खैरागढ रियासत के भुतपूर्व नरेश श्री राजा बहादुर, वीरेन्द्र बहादुर सिंह द्वारा मंदिर के संचालन का भार माँ बम्लेश्वरी ट्रस्ट कमेटी को सौंपा गया था। डोंगरगढ के पहाड मे स्थित माँ बम्लेश्वरी के मंदिर को छत्तीसगढ का समस्त जनसमुदाय तीर्थ मानता है। यहां पहाडी पर स्थित मंदिर पर जाने के लिये सीढीयों के अलावा रोपवे की सुविधा भी है। यहां यात्रियो की सुविधा हेतु पहाडो के ऊपर पेयजल की व्यवस्था, विध्दुत प्रकाश, विश्रामालयों के अलावा भोजनालय व धार्मिक सामग्री खरीदने की सुविधा है। डोंगरगढ रायपुर से 100 K M  की दूरी पर स्थित है। तथा मुंबई-हावडा रेल्वे के अन्तर्गत भी आता है। यह छत्तीसगढ का अमुल्य धरोहर है।

विवरण
डोंगरगढं चारो ओर हरी-भरी पहाडियों, छोटे-बड़े तालाबों एवं पश्चिम में पनियाजोब जलाशय, उत्तर में ढारा जलाशय तथा दक्षिण में मडियान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण स्थान है। कामाख्या नगरी व डुंगराज्य नगर नामक प्राचीन नामों से विख्यात डोंगरगढ में उपलब्ध खंडहरों एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरी काल का एवं 12 वीं-13 वीं सदी के लगभग का पाया

दंतेश्वरी मंदिर देवी

दंतेश्वरी मंदिर देवी दंतेश्वरी को समर्पित मंदिर है, और यह भारत भर में फैले 52 शक्तिपीठों में से एक है, जो शक्ति, दिव्य स्त्री के मंदिर हैं। 14वीं शताब्दी में बना यह मंदिर दंतेवाड़ा में स्थित है, जो जगदलपुर तहसील से 80 किमी दूर और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर शहर से 350 किमी दूर स्थित है। यह NH30 से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है, और रायपुर शहर से सड़क मार्ग से लगभग 7-8 घंटे की यात्रा दूरी पर है।

दंतेश्वरी मंदिर जिले में हजारों पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। 52 शक्तिपीठों में से एक माना जाने वाला यह मंदिर साल भर पर्यटकों के लिए आसानी से उपलब्ध है। नवरात्रि (शरद नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि) और फागुनमेला (मार्च-अप्रैल) के दौरान इस मंदिर शहर में बहुत सारे पारंपरिक उत्सव होते हैं।

बस्तर के विभिन्न इतिहास की पुस्तकों के अनुसार प्रतापरुद्रदेव का जन्म वारंगल के काकतीय राजवंश में हुआ था, जिनके चचेरे भाई के रूप में अन्नमदेव के बारे में जानकारी मिलती है। 13 वीं शताब्दी में प्रतापरुद्रदेव को काकतीय राजवंश का उत्तराधिकारी बनाया गया। मुगल शासकों ने वारंगल में तीसरी बार आक्रमण किया और प्रतापरुद्रदेव को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया। इसी बीच अनुज अन्नमदेव ने बस्तर की ओर कूच कर दिया था और यहां नागवंश को हराकर काकतीय राजवंश की स्थापना की थी। राजा अन्नमदेव द्वारा सर्वप्रथम मंधोता को राजधानी बनाने के बाद जगदलपुर को राजधानी बनाया गया।


रतनपुर महामाया मंदिर

12-13 वीं शताब्दी में बना यह मंदिर देवी महामाया को समर्पित है। इसे रत्नपुर के कलचुरी शासनकाल के दौरान बनाया गया था। कहा जाता है कि यह उस स्थान पर स्थित है जहां राजा रत्नदेव ने देवी काली के दर्शन किए थे।मूल रूप से मंदिर तीन देवियों अर्थात महाकाली,HII बाद में फिर राजा बहार साईं द्वारा एक नया (वर्तमान) मंदिर बनाया गया था जो देवी महालक्ष्मी और देवी महासरस्वती के लिए था। इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1552 ( 1492 ई.) में हुआ था मंदिर के पास तालाब हैं। परिसर के भीतर शिव और हनुमान जी के मंदिर भी हैं। परंपरागत रूप से महामाया रतनपुर राज्य की कुलदेवी हैं। मंदिर का जीर्णोद्धार वास्तुकला विभाग द्वारा कराया गया है। महामाया मंदिर जिला मुख्यालय बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से 25  कि.मी. दूर रतनपुर में स्थित है।

स्थापत्य

महामाया मंदिर एक विशाल पानी की टंकी के बगल में उत्तर की ओर मुख करके नागर शैली की वास्तुकला में बनाया गया है। कोई भी सहायक मंदिरों, गुंबदों, महलों और किलों के स्कोर को देख सकता है, जो कभी मंदिर और रतनपुर साम्राज्य के शाही घराने में स्थित थे।

परिसर के भीतर, कांतिदेवल का मंदिर भी है, जो समूह का सबसे पुराना है और कहा जाता है कि इसे 1039  में संतोष गिरि नामक एक तपस्वी द्वारा बनवाया गया था, और बाद में  15 वीं शताब्दी में कलचुरी राजा पृथ्वीदेव द्वितीय द्वारा इसका विस्तार किया गया। इसके चार द्वार हैं और उनमें सुंदर नक्काशियाँ हैं। इसे भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा भी पुनर्स्थापित किया गया है। गर्भगृह और मंडप एक आकर्षक प्रांगण के साथ किलेबंद हैं, जिसे 18वीं शताब्दी के अंत में मराठा काल में बनाया गया था।

कुछ किलोमीटर की दूरी पर प्राचीन 11 वीं शताब्दी के पुराने कड़ईडोल शिव मंदिर के अवशेष हैं, जो खंडहर हो चुके किले की एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, जिसे कलचुरी शासकों द्वारा निर्मित किया गया था, जो शिव और शक्ति के अनुयायी थे। पुरातत्व विभाग द्वारा इस मंदिर के जीर्णोद्धार की योजना भी बनाई जा रही है।

लोग नवरात्र उत्सव के दौरान मंदिर में भीड़ लगाते हैं, जब देवी मां को प्रसन्न करने के लिए ज्योतिकलश जलाया जाता है।मंदिर के संरक्षक कालभैरव को माना जाता है, जिनका मंदिर राजमार्ग पर मंदिर के ही रास्ते पर स्थित है। यह एक लोकप्रिय धारणा है कि महामाया मंदिर जाने वाले तीर्थयात्रियों को भी अपनी तीर्थयात्रा पूरी करने के लिए कालभैरव के मंदिर जाने की आवश्यकता होती है।

 

माँ शारदा माता, मैहर |

सतना जिला मुख्यालय से इसकी अनुमानित दूरी 40 किलोमीटर है। मंदिर त्रिकूट पर्वत पर 100 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। जमीन से 600 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए 1001 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।मैहर का अर्थ मां का हार से लिया जाता है। यह मंदिर एक शक्तिपीठ है। मान्यता है कि जब शिव के हाथ में पड़े सती के शव को भगवान विष्णु ने सुदर्शन से काटा तो उसके हिस्से और आभूषण अलग-अलग जगहों पर गिरे, जो बाद में शक्तिपीठ बने। मैहर में माता का हार गिरने से इस जगह को मैहर कहा जाता है।

मां शारदा मंदिर प्रांगण में स्थित फूलमती माता का मंदिर आल्हा की कुल देवी का है. विश्वास किया जाता है कि प्रति दिन ब्रम्ह मुहूर्त में स्वयं आल्हा यहां मां की पूजा करते हैं. मंदिर की तलहटी में आज भी आल्हा देव के अवशेष हैं. यहां आल्हा मंदिर है और आल्हा ऊदल का अखाड़ा भी. यह कहा जाता है कि जब शिव मृत देवी माँ के शरीर ले जा रहे थे, उनका हार इस जगह पर गिर गया और इसलिए नाम मैहर (मैहर = माई का हार ) पड़ गया। एक कहानी यह भी है कि भगवती सती का उर्ध्व ओष्ठ यहां गिरा था।

मां शारदा का यह मंदिर रहस्यों से भरा है. आज भी मां की प्रथम पूजा वीर आल्हा करते हैं, जिन्हें मां शारदा ने अमरता का वरदान दिया था. मान्यता है की जब प्रातः काल मां शारदा के मंदिर के पट खोले जाते हैं, तब वहां अक्षत, पुष्प और ज्योति जैसे अलग-अलग प्रमाण मिलते रहते हैं

कहा जाता है कि एक पुजारी के रूप में रामकृष्ण ने शारदा देवी को देवी काली के स्थान पर बैठाया और अनुष्ठानपूर्वक षोडशी पूजा की. रामकृष्ण ने शारदा को दिव्य मां का अवतार माना और उन्हें श्री मां संबोधित किया.

मैहर में शारदा माँ का प्रसिद्ध मन्दिर है जो नैसर्गिक रूप से समृद्ध कैमूर तथा विंध्य की पर्वत श्रेणियों की गोद में अठखेलियां करती तमसा के तट पर त्रिकूट पर्वत की पर्वत मालाओं के मध्य 600 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह ऐतिहासिक मंदिर 108 शक्ति पीठों में से एक है। यह पीठ सतयुग के प्रमुख अवतार नृसिंह भगवान के नाम पर 'नरसिंह पीठ' के नाम से भी विख्यात है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर आल्हखण्ड के नायक आल्हा व ऊदल दोनों भाई मां शारदा के अनन्य उपासक थे। पर्वत की तलहटी में आल्हा का तालाब व अखाड़ा आज भी विद्यमान है। यहाँ प्रतिदिन हजारों दर्शनार्थी आते हैं किंतु वर्ष में दोनों नवरात्रों में यहां मेला लगता है जिसमें लाखों यात्री मैहर आते हैं। मां शारदा के बगल में प्रतिष्ठापित नरसिंहदेव जी की पाषाण मूर्ति आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व की है। देवी शारदा का यह प्रसिद्ध शक्तिपीठ स्थल देश के लाखों भक्तों के आस्था का केंद्र है माता का यह मंदिर धार्मिक तथा ऐतिहासिक है। वर्तमान में माँ शारदा शक्ति पीठ के प्रधान पुजारी पवन पाण्डेय जी है।

के जे एस के पास इच्छापूर्ति मंदिर पर्यटकों का दर्शनीय स्थल है ।

उत्पत्ति

ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति का विवाह स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति से हुआ था। प्रसूति ने सोलह कन्याओं को जन्म दिया जिनमें से स्वाहा नामक एक कन्या का अग्नि देव के साथ, स्वधा नामक एक कन्या का पितृगण के साथ, सती नामक एक कन्या का भगवान शंकर के साथ और शेष तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह हुआ। धर्म की पत्नियों के नाम थे- श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति।

 

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