जगन्नाथ मंदिर में जो रसोई है वह अनादि काल से
संचालित है यह मान्यता है की
भगवान श्री कृष्ण की रसोई से प्रसाद पाने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं, चावल एक ऐसी
प्रजाति है जो पूरे विश्व में पाई जाती है आप किसी भी देश में
चले जाएं भोजन के लिए चावल मिल ही जाता मान्यता है भगवान की
में रसोई जो चावल पकता है वह नई फसल
का ही चावल होता है इसका मतलब है की 12 महीने नए चावल फसल बोई जाती है |
पुरी का श्री जगन्नाथ
मंदिर एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ
(श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित
है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या
पुरी कहलाती है।|इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में
से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो
भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस
मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता,
भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और
भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में
विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव
हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव
कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती
है। यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा
हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक
श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी
थे।
मंदिर
मंदिर
के शिखर पर स्थित चक्र और ध्वज। चक्र सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान
जगन्नाथ इस मंदिर के भीतर हैं, इस का
प्रतीक है।
गंग
वंश के हाल ही में अन्वेषित ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है,
कि वर्तमान मंदिर के निर्माण कार्य को कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग
देव ने आरम्भ कराया था। मंदिर के जगमोहन और विमान भाग
इनके शासन काल (१०७८ - ११४८) में बने थे। फिर सन ११९७ में जाकर ओडिआ शासक अनंग भीम
देव ने इस मंदिर को वर्तमान रूप दिया था
मंदिर
में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। इस वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा
पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बंद करा दी,
तथा विग्रहो को गुप्त मे चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे रखागया।
बाद में, रामचंद्र देब के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित
करने पर, मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई ।
मंदिर
से जुड़ी कथाएं
इस
मंदिर के उद्गम से जुड़ी परंपरागत कथा के अनुसार,
भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति,
एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी,
कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश
इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब
भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु
(लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा
ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा
बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किंतु उन्होंने यह
शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के
अंदर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर
बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं,
उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह
मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं। चारण परंपरा
मे माना जाता है की यहां पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि
मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया ( किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ ) पर भरती आते ही समुद्र उफ़ान पर होते ही
तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरि मे निकले
,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो
एक रथ मे होते पर शव थे इसिलिये अलग रथो मे रखा गया)शवो को पुरे नगर मे लोगो ने
खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि
कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया , आज भी उश
परंपरा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है , ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहां पधारे थे एसा ही मानते है ,
चारण जग्दंबा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे
भी यह उल्लेख मिलता है |
बौद्ध
मूल
कुछ
इतिहासकारों का विचार है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता
था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति,
कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी
जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा थ
महाराजा
रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस
मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके
द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं
अधिक था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि
विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे
मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मंदिर को दान कर दिया
जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी
शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान
जगन्नाथ के मुकुट की शान होता
मंदिर
का ढांचा
पुरी
में रथयात्रा, जेम्स फर्गुसन द्वारा एक
चित्र/पेंटिंग
मंदिर
का वृहत क्षेत्र 400,000 वर्ग फुट (37,000 मी2) में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर
स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह
मंदिर, भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है।
मुख्य
मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके
शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी
कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर
का मुख्य ढांचा एक 214 फीट (65 मी॰) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर
आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए
अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की
पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर
के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेर ेहुए अन्य छोटे पहाड़ियों,
फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है।
मुख्य
मढ़ी (भवन) एक 20 फीट (6.1 मी॰) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य
मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ,
मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा
रक्षित हैं।
देवता
भगवान
जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न
मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की
अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। सम्भव है, कि यह प्राचीन जनजातियों द्वारा भी पूजित रही हो।
उत्सव
यहां
विस्तृत दैनिक पूजा-अर्चनाएं होती हैं। यहां कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते
हैं, जिनमें सहस्रों लोग भाग लेते हैं।
इनमें सर्वाधिक महत्व का त्यौहार है, रथ यात्रा, जो आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को, तदनुसार लगभग
जून या जुलाई माह में आयोजित होता है। इस उत्सव में तीनों मूर्तियों को अति भव्य
और विशाल रथों में सुसज्जित होकर, यात्रा पर निकालते हैं।[ यह यात्रा ५ किलोमीटर लम्बी होती है। इसको लाखो लोग शरीक होते है।
वर्तमान
मंदिर
थेन्नणगुर
का पाण्डुरंग मंदिर, पुरी के जगन्नाथ मंदिर के
समान ही बनाया गया है
आधुनिक
काल में, यह मंदिर काफी व्यस्त और सामाजिक एवं
धार्मिक आयोजनों और प्रकार्यों में व्यस्त है। जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण
यहां की रसोई है। यह रसोई भारत की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। इस
विशाल रसोई में भगवान को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए ५०० रसोईए तथा
उनके ३०० सहयोगी काम करते हैं।
इस
मंदिर में प्रविष्टि प्रतिबंधित है। इसमें गैर-हिन्दू लोगों का प्रवेश सर्वथा
वर्जित है। पर्यटकों की प्रविष्टि
भी वर्जित है। वे मंदिर के अहाते और अन्य आयोजनों का दृश्य, निकटवर्ती
रघुनंदन पुस्तकालय की ऊंची छत से अवलोकन कर सकते हैं।[18] इसके
कई प्रमाण हैं, कि यह प्रतिबंध, कई
विदेशियों द्वारा मंदिर और निकटवर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ और श्रेणिगत हमलों के
कारण लगाये गये हैं। बौद्ध एवं जैन लोग मंदिर प्रांगण में आ सकते हैं, बशर्ते कि वे अपनी भारतीय वंशावली का प्रमाण, मूल
प्रमाण दे पायें। मंदिर ने धीरे-धीरे, गैर-भारतीय मूल के लेकिन हिन्दू लोगों का प्रवेश क्षेत्र में स्वीकार करना
आरम्भ किया है। एक बार तीन बाली के हिन्दू लोगों को प्रवेश वर्जित कर दिया गया था,
जबकि बाली की ९०% जनसंख्या हिन्दू है। तब निवेदन करने पर भविष्य के
लिए में स्वीकार्य हो गया।
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Comments
Innovative & ceative
Replied by kmallick@gmail.com at 2019-07-03 20:47:39
Welfare measures for mankind
Replied by kmallick@gmail.com at 2019-07-03 20:51:24
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bahut hi achha varnan he
Replied by achoubey242@gmail.com at 2019-08-29 18:44:52
Such a great coverage of Jagannath ji is a good effort, worth reading.
Replied by achoubey242@gmail.com at 2019-08-29 18:47:00