जन्माष्टमी पर विशेष
नरेन्द्र कुमार वर्मा
नई दिल्ली 07/09/2023/// भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु जी का आठवां अवतार कहा जाता हैं। श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में मध्यरात्रि को हुआ था। हिंदू पंचाग के अनुसार सारे भारत वर्ष में इस तिथि को धूमधाम के साथ श्रीकष्ण प्रकाट्योत्सव मनाया जाता हैं। मध्यरात्रि 12 बजे के समय सारे भारतवर्ष के मंदिरों में लड्डूगोपाल जी का जन्मोत्सव शुरू हो जाता है। इस दिन कान्हा के भक्त व्रत रखते हैं। जन्माष्टमी का व्रत सबसे लंबा माना जाता है। अष्टमी तिथि को नंदगोपाल के जन्म के बाद चंद्रदर्शन करके लोग अपना व्रत खोलते हैं। मथुरा में श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव गोकुलाष्टमी के नाम से मनाया जाता है। जहां यह उत्सव 8 दिनों तक चलता रहता है। सनातन वैष्णव परंपरा में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव को सबसे पवित्र त्योहार माना गया है। वैसे तो सारे भारतवर्ष में जन्माष्टमी के पर्व की धूम रहती है मगर उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश ओडिशा, बिहार, मणिपुर, और असम में पूरे उत्साह के साथ यह पर्व मनाया जाता है।
आज के कान्हा
सनातन धर्म में भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र अव्दितीय हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो भी कार्य किया पूरी ऊर्जा और ध्यान से किया। दुनियाभर को ज्ञान के प्रकाश से प्रज्जवलित करने वाली श्रीमद् भागवत गीता में वह कहते है “सभी मार्ग अंततः मेरी और ही लेकर आते है”। भगवान श्रीकृष्ण ने व्दापर युग में लोगों को धर्मसम्मत आचरण का मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने भक्तों को आश्वस्त करते हुए कहा जब भी इस भूमि पर धर्म का क्षरण होगा तो मैं धर्म की पुनर्स्थापना के लिए इस भूमि पर जन्म लूंगा। श्रीकृष्ण ने अधर्मियों को दंडित करने को आवश्यक बताया था। इसलिए ही वह कुरुक्षेत्र के युध्द में पांडवों के साथ खड़े रहे और अर्जुन के रथ के सारथी बने। युध्द से पहले उन्होंने कौरवों को अपने साम्राज्य का आधा हिस्सा पांडवों को देने का आग्रह किया था। भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को समझाया था कि जिस राज्य के प्रभुत्व पर तुम अभिमान कर रहे हो उसके आधे हिस्से के वैधानिक अधिकारी पांडव हैं।
बाल्यकाल में कान्हा का जीवन बहुत उथल-पुथल वाला रहा। जन्म के बाद वह मथुरा आए जहां उनकी बाल-सुलभ शरारतों और हास्य परिहास्य भरे आचरण से सभी उनकी तरफ आकर्षित होते चले गए। बाल्यकाल में उन्होंने कई विशाल राक्षकों का वध किया। उन्होंने प्रकृति और जीव-जंतुओं के प्रति स्नेह का संदेश हमें दिया। इतिहासकार कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल ही नहीं बल्कि अपने समूचे जीवनकाल में लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किए रखा। श्रीकृष्ण के इस आकर्षण के पीछे उनकी सकारात्मकता थी जिसे उन्होंने दूसरों के भीतर भी प्रवाहित किया। इसी सकारात्मकता के कारण उन्होंने इंद्र के मिथ्या अभिमान को खंडित कर दिया। उन्होंने मथुरा के गोपालकों को इंद्रदेव की पूजा का त्याग कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का सुझाव दिया। नंदगोपाल ने गोपालकों को समझाया कि गोवर्धन पर्वत के कारण ही उनकी गायों को भोजन और जल मिलता है। श्रीकृष्ण के इस कृत्य से इंद्रदेव कुपित हो उठे और उन्होंने सात दिनों तक लगातार बारिश करके समूची बृजभूमि को डूबा दिया। उसी समय श्रीकृष्ण ने अपना विशाल स्वरूप दिखाया और गोवर्धन पर्वत को उठा कर उसके नीचे सभी गोपालकों को आश्रय दिया।
नटवर जीवनभर निर्बल लोगों के साथ खड़े रहे। उन्होंने जीवनभर महिलाओं के सम्मान और उनकी रक्षा का कार्य किया। गिरधर ने द्रोपदी के स्वाभिमान की उस समय रक्षा की जब उनकी लाज को भरी सभा में खिंचा जा रहा था। द्रोपदी जब सारी दुनिया के वीरों से मदद का आग्रह कर रही थीं तब कान्हा ने अपनी लीला का प्रदर्शन कर उनके सम्मान की रक्षा की थी। अपने निर्बल मित्र सुदामा का जीवन उन्होंने एक मुठ्ठी चावल के दाने खाकर ही बदल दिया। श्रीकृष्ण अपने जीवन में कभी कोई शिकायत नहीं करते बल्कि सभी की शिकायतों का समाधान करते हैं।
श्रीकृष्ण का जीवन हमें सत्य, धर्म, धैर्य, संघर्ष और उत्तरदायित्वों की शिक्षा देता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े अनेक प्रसंगों का उल्लेख बौध्दधर्म, जैन धर्म एवं सिख धर्म के ग्रंथों में भी मिलता हैं। यहां तक कि बहाई धर्मावलंबियों का कहना हैं भगवान श्रीकृष्ण ईश्वर के एक अवतार थे। उन्होंने अपने वचनों से मानवता को परिपक्व करने का काम किया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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